मीरा एवं चन्द्रसखी के काव्य का तुलनात्मक अध्ययन

लेखक : डाॅ. मेहनाज बेगम

प्रकाशक : आशीष प्रकाशन, कानपुर

संस्करण : प्रथम 2012

कृष्ण-भक्ति साहित्य का भक्ति काल में एक विशिष्ट स्थान है। मीरा व चन्द्रसखी भी कृष्ण भक्त रचनाकार थे, दोनों ने ही सांसारिक बंधनों से निराश होकर श्रीकृष्ण की शरण ली और प्रेम तथा भक्ति के मार्ग पर चलकर अपने जीवन को सार्थक बनाया।

प्राप्त सामग्री के अध्ययन से ज्ञात हुआ कि चन्द्रसखी स्त्री नहीं पुरुष थे। उन्होंने सखी भाव से काव्य रचना की थी। चन्द्रसखी स्त्री रूप में ही रहते थे तथा प्रभु श्रीकृष्ण की आराधना करते थे। स्त्री-भाव से ही उन्होंने अपना उपनाम चन्द्र से चन्दसखी रख लिया था। ‘चन्द्रसखी’ व ‘चंदसखी’ नाम में भी कई विषमताएं प्रस्तुत हैं। प्रभुदयाल मितल ने इन्हें ‘चंदसखी’ नाम से सम्बोधित किया है तथा डाॅ. मनोहर शर्मा, डाॅ. हौसिला प्रसाद सिंह व पद्मावती शबनम के द्वारा संकलित पदों में ‘चन्द्रसखी’ नाम का उल्लेख मिलता है। चन्द्रसखी का स्त्री भाव में श्रीकृष्ण की आराधना करना ही इन्हें मीरा के समतुल्य स्थापित करता है। चन्द्रसखी एक पुरुष थे और मीरा एक स्त्री। परन्तु दोनों ने एक ही भाव से श्रीकृष्ण की भक्ति की। मीरा व चन्द्रसखी के पद राजस्थान, मथुरा तथा वृन्दावन आदि स्थानों पर अत्यधिक प्रचलित हैं। मीरा की प्रसिद्धि तो उनके पदों के समान ही है, आज का युवा वर्ग भी मीरा के नाम से पूर्णरूप से परिचित है, परन्तु चन्द्रसखी का अस्तित्व समाप्त सा हो गया है।

मीरा पूर्व मध्यकाल की कवयित्री हैं तथा चन्द्रसखी उत्तर मध्यकाल के। दोनों ने ही श्रीकृष्ण की आराधना की और उनकी लीलाओं का वर्णन अपने काव्य के माध्यम से किया है, परन्तु दोनों में काव्य-भाव, भक्ति-भाव और साहित्यिक दृष्टिकोण से कई समानताएँ एवं विषमताएँ हैं, जैसे कि मीरा सम्प्रदायों से मुक्त है और चन्द्रसखी सम्प्रदाय से जुडे़ हैं।

प्रस्तुत शोध ग्रन्थ ‘‘मीराबाई एवं चन्द्रसखी के काव्य का तुलनात्मक अध्ययन’’ का प्रथम अध्याय ‘मीराबाई एवं चन्द्रसखी के व्यक्तित्व और कृतित्व’ से सम्बन्धित है, जिसके अन्तर्गत मीराबाई एवं चन्द्रसखी के जीवन से सम्बन्धित सभी तथ्यों का वर्णन प्रस्तुत है। द्वितीय अध्याय ‘हिन्दी कृष्ण काव्य परम्परा में मीराबाई एवं चन्द्रसखी के स्वरूप को दर्शाता है। कृष्ण भक्ति सम्प्रदायों का संक्षिप्त परिचय भी इस अध्याय में प्रस्तुत है।

तृतीय अध्याय ‘मीराबाई एवं चन्द्रसखी की भक्ति पद्धति’ को उजागर करता है। यह अध्याय मीराबाई एवं चन्द्रसखी के भक्ति निरूपण, उनमें नवधा भक्ति व एकादश भक्ति, भाव भक्ति तथा माधुर्य भक्ति के स्वरूप को प्रस्तुत करता है।

चतुर्थ अध्याय में मीराबाई एवं चन्द्रसखी की रचनाओं में दर्शन का स्वरूप तथा योग साधना का वर्णन है। श्रीकृष्ण का सौन्दर्यमय स्वरूप तथा मीरा व चन्द्रसखी के हृदय में उत्पन्न सौन्दर्यानुभूति ने मीरा को कृष्ण की प्रेयसी व चन्द्रसखी को सहचरी स्वरूप बना दिया। मीराबाई एवं चन्द्रसखी के इन स्वरूपों का विवेचन इस अध्याय में किया गया है।

पंचम अध्याय मीराबाई एवं चन्द्रसखी के काव्य में रसानुभूति को व्यक्त करता है। यह अध्याय मीराबाई एवं चन्द्रसखी के पदों में श्रृंगार रस, शांत रस, करुण रसतथा वात्सल्य रस की रसानुभूति को अभिव्यक्त करता है।

षष्ठ अध्याय मीराबाई एवं चन्द्रसखी के काव्य में सौन्दर्य बोध का परिचायक है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण सौन्दर्य के विविध स्वरूपों तथा प्रकृति के सौन्दर्य का चित्रण मिलता है।

सप्तम अध्याय मीराबाई एवं चन्द्रसखी के काव्य में गीति तत्त्व को दर्शाता है। मीराबाई एवं चन्द्रसखी के पद गीति काव्य के सभी तत्त्वों संक्षिप्तता, वैयक्तिकता, भावभिव्यंजना, आत्माभिव्यक्ति, भाव एक्य एवं संगीतात्मक के दर्शन होते हैं।

अष्टम अध्याय में ‘मीराबाई एवं चन्द्रसखी के काव्य में संगीत योजना’ को वर्णित किया गया है। नवम अध्याय मीराबाई एवं चन्द्रसखी के काव्य शिल्प को दर्शाता है। मीराबाई एवं चन्द्रसखी की भाषा, अलंकार विधान, छन्द-विधान, बिम्ब विधान और प्रतीक विधान का वर्णन इस अध्याय में प्रस्तुत है।

यही मेरे प्रस्तुत शोध कार्य की सफलता होगी कि सम्पूर्ण साहित्य प्रेमियों को चन्द्रसखी जैसा भक्त और साहित्यकार पुनः प्राप्त हो सके।