स्त्री चेतना और मीरा का काव्य

लेखिका : पूनम कुमारी

प्रकाशक : अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लि.

संस्करण : प्रथम 2009

अनंत काल से नारी की चर्चा केवल शोभा और प्रदर्शन की वस्तु के रूप में होती रही है। जब भी उसने इस घेरे से बाहर आने की कोशिश की, उसे उपहास और व्यंग्य का पात्र बनना पड़ा। वेद, पुराण, संहिताएं आदि ग्रंथों ने नारी का चित्रण इस प्रकार किया है कि समाज उसे मां, बहन, बेटी, पत्नी, देवी से परे एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में देख ही नहीं पाता। सदियों से बर्बर रीति-रिवाजों और परंपराओं में जकड़ी नारी पूर्वनिर्धारित प्रतिमानों से अलग आज अपनी मुक्ति के लिए संघर्षरत है। इसी परिप्रेक्ष्य में मध्यकालीन सामाजिक रूढ़ियों, मान्यताओं और वर्जनाओं के बीच आत्म-संघर्ष करता मीरा का व्यक्तित्व और कृतित्व अपने लिए नए विमर्श की मांग करता है।

प्रस्तुत पुस्तक का प्रथम अध्याय ‘भक्ति आंदोलन और नारी’ है। भक्ति आंदोलन का क्रांतिकारी महत्त्व इस बात में निहित है कि इसने शूद्रों, स्त्रियों और निम्नजातीय वर्णों में आत्म प्रतिष्ठा का भाव जगाया। भक्ति के धरातल पर ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष, ब्राह्मण-शूद्र का भेदभाव मिटा। स्त्री-चेतना क्या है? भारत में इसका अभ्युदय कब, कहां और कैसे हुआ? समकालीन भारतीय नारीवादी आंदोलन के कौन-कौन से आयाम हैं? भारतीय हिंदू समाज विशेषतः शास्त्रों में नारी को किस रूप में देखा गया है। द्वितीय अध्याय ‘स्त्री-वेदना’ में इन्हीं चीजों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

तृतीय अध्याय ‘स्त्री-चेतना और मीरा का काव्य’ है। मीरा की कविता हिंदी साहित्य में स्त्री-चेतना की अभिव्यक्ति का प्रस्थान बिंदु है। पराधीनता का बोध और उससे मुक्ति के लिए संघर्ष-मीरा काव्य के ये दोनों पहलू उसे समकालीन स्त्री-चेना से जोड़ते हैं। मीरा का संघर्ष और विद्रोह स्त्रियों के पक्ष में कोई क्रांति क्यों नहीं ला सका?

चतुर्थ अध्याय ‘मीरा की भक्ति-भावना’ है। मीरा की भक्ति को तत्कालीन सामाजिक परिप्रेक्ष्य में रखकर ही समझा जा सकता है। उनकी भक्ति में तत्कालीन सामाजिक रीति-रिवाजों, रूढ़ियों में जकड़ी स्त्री का संघर्ष और मुक्ति-कामना का द्वंद्व अभिव्यक्त हुआ है।

मीरा के पदों की भाषा, उसमें प्रयुक्त बिंब और प्रतीक वही नहीं हैं जो एक पुरुष भक्त कवि के हैं। मीरा के यहां कृष्ण के लिए प्रयुक्त संबोधनपरक शब्दों का भी विशेष महत्त्व है। इन सबके साथ-साथ पदावली में प्रयुक्त भाषा का अलंकार, छंद, गेयता आदि की दृष्टि से विचार पंचम अध्याय में किया गया है। छठे अध्याय में मीराबाई की अब तक की मान्य जीवनी और कुछ लोकप्रचलित जनश्रुतियों की प्रामाणिकता पर विचार किया गया है। मीरा के काव्य की समीक्षा में स्त्री-चेतना के नये पहलू को जोड़ने में यह पुस्तक सक्षम है।