मतवाली मीराँ

पश्चिमी भारत की मरूभूमि में लगभग पाचसो वर्ष पूर्व एक कोयल रोई थी, नैनों का आकाश बरसा था, भक्ति की चांदनी छिटकी थी | कृष्ण की एक आराधिका ने अपने प्रेम की तरलता से रेगिस्तान के कण कण को भिगो दिया था | एक राजकन्या, एक राजवधुने सारी सुख सुविधा, भौतिक समृद्धि को ठुकरा कर ‘प्रेम दीवानी’ होना स्वीकार किया था | कौन जानता था कि कालांतर में वह एक ‘जोगी’ के लिए ‘जोगिन’ बन जाएगी और हमारे जैसे साहित्य प्रेमी उसे मरूभूमि की मन्दाकिनी के नाम से पहेचानेंगे ?
“ मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई |
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ||” यह पद इतना जाना पहचाना है की सुनते ही मेवाड़ की भक्तिमयी मीराँबाई हमारे नेत्रों के सामने जैसे इकतारा लिए हुए मोहन के गीत गाते हुए दिखती है | जिस प्रकार मीराँ के ह्रदय में अपने गिरधर नागर की मूर्ति बिराजमान थी, वैसे ही भक्ति-प्रेम का दिव्य द्रष्टान्त देनेवाली मीराँ की मधुर मूर्ति हमारे ह्रदय में बस गई है |
राव दूदाजी जो कि मेड़तिया वंश के प्रवर्तक थे, उनके चौथे पुत्र रतनसिंह की वो पुत्री थी | वैष्णव धर्म में माननेवाले संस्कारी कुटुंब में पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, संत समागम आम बात थी | मीराँ भी बाल्यकाल से ही धार्मिक वातावरण में पली बड़ी थी | श्रीकृष्ण की पूजा बचपन से ही करती थी, पर साधु और बारातवाली घटना के बाद उसका भाव और भी पुष्ट हुआ | बारह वर्ष होते ही उसका विवाह महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ सम्पन्न हुआ | विधाता की मरजी देखो कुछ ही साल में मीराँ को वैधव्य प्राप्त हुआ | अपने गिरिधर नागर के और निकट हो गई |
देवर विक्रमादित्य के दुर्व्यवहारने उसकी प्रेमभक्ति को और गहरा किया | वैधव्य कलमे मीराँ को साधु संतो के साथ उठते-बैठते देखकर विक्रमादित्यने मीराँ को मारने के लिए विष का प्याला और सर्प की पिटारी भेजी | मीराँ की सच्ची भक्ति के कारण उसका बाल भी बांका नही हुआ | दिन-प्रतिदिन ऐसे दुर्व्यवहारने मीराँ को चित्तौड़ छोड़कर मेड़ता जाने को मजबूर किया | मेड़ता भी वो ज्यादा दिन ना रह पायी | यात्रा-क्रम चलता रहा | कृष्ण-क्रीडा स्थलों का भ्रमण करती हुई मीरा द्वारिका पहुँच गई | जनश्रुति के अनुसार मीराँ रणछोड़जी की मूर्ति में समा गई | “असुंअन जल सींच सींच प्रेम बेली बोई |“ हाँ मीराँने अपने प्रेम के आंसुओ से सिंचन करके अपने गिरिधर नागर के प्रति अपने प्रेम की बेल लगाईं है |
मीराँबाई का जीवन मात्र प्रभुभक्ति के लिए ही था | आत्मसमर्पण और अनन्यता का भाव मीराँ में सर्वाधिक मिलता है | मीराँ भक्त थी, संत थी, पर उसके पहेले वो राजकन्या थी, राजरानी थी | धन, कीर्ति, प्रतिष्ठा, सत्ता सब कुछ उसके पास था, पर इस संसार की कोई भी चीज मीराँ को आकृष्ट ना कर सकी | मीराँ ने सांसारिक विलास, वैभव, सुख को ऐसे त्याग दिया जैसे साँप अपनी त्वचा त्याग देता है | सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग ! लेकिन मीराँने तो लोकोपवाद की जरा भी परवाह नहीं की | लोग क्या कहेंगे इस आशंका से पीड़ित मनुष्य अपने ध्यान से तिरोधान कर देता है, पर मीराँने अपना ध्यान श्रीकृष्ण के अलावा किसी पर ना लगाया |
परम तत्व के प्रति अनुराग ही भक्ति है | ‘प्रेम’ ढाई अक्षर के इस अमोघ शस्त्र से मनुष्य उस निराकार को साकार स्वरुप में पाता रहा है | उस साकार के दर्शनों की प्यास बढती जाती है | प्रेमोन्मादिनी मीराँबाईने अपने कृष्ण-कन्हाई की माधुरी पर सर्व न्योछावर कर दिया | गिरिधर नागर को अपना प्रियतम माना, पति माना और उसके लिए ह्रदय में जो प्रेम रूपी अग्नि लगी वही अग्नि शब्द रूप बनकर उनके पदों में समा गई | मीराँ के काव्यो में उसकी प्रेम व्याकुलता और तन्मयता साफ़ दिखती है | मिलन और विरह का एक अद्भुत संगम उसके पदों में है | उसे मालूम है कि उसका प्रियतम लौकिक नहीं है, लेकिन उस अलौकिक निर्मोही के प्रेम बंधन में बंधने के बाद यह प्रश्न गौण बन जाता है | मीराँ तो स्पष्टरूप से कहती है कि उसकी प्रीत जन्मजन्मान्तर की है | “पूर्व जनम की प्रीति हमारी, अब नहीं जाती निवारी | सुन्दर बदन जोवत सजनी प्रीति भई छे भारी | “ फिर भी जब प्रेम किया ही है कन्हैया से तो अब निभाना ही पड़ेगा | बेताबी बढती जाती है, सजन मिलता नहीं है, कभी-कभी राह देख-देख अखियाँ थक जाती है | तब उसका दिल कह उठता है कि, उसका प्रियतम बड़ा निष्ठूर है | उसको भूल गया है | एक मीराँ है जो अपने सांवरे को एक क्षण के लिए भी भूल नहीं पाती है | उसने तो अपना तन , मन सब उस छलिये को दे रखा है | विरह की पीड़ा में वो गा उठती है कि, “जो में एसा जानती प्रीत किये दुःख होय, नगर ढिंढोरा पिटती, प्रीत ना करियो कोई |” यह कहनेके लिए भी तो मीराँ गिरिधर को याद करती है !! अपने चितचोर से शिकायत करती है |
कभी कभी प्रेमावश होकर अपने प्रियतम के आनेकी आहट सुनती है |
“आवत मोरी गलियन में गिरधारी, में तो छुप गई लाज की मारी |” विश्वास और आस्था दृढ कर देने वाली इस पंक्तियों में मीराँ के मन का आनंद साफ़ दिखाई देता है | स्त्री सहज लज्जा उमड़कर बहार आती है, जब वो गाती है कि में तो छुप गई लाज की मारी | मिलन की प्यास और लज्जा-संकोच का भाव सम्मिश्रित हो जाता है | सावन का मौसम मीराँ को अपने प्रियतम से मिलने को बेताब कर देता है | बदरिया को देखकर मन ख़ुशी से झूम उठता है, “बस झुक आई बदरिया सावन की, सावन की मनभावन की |” मिलन का थोडा-सा काल्पनिक सुख और विरह का एक युग, फिर भी मीराँ अपनी ही मस्ती में डूबी रही | पानी में घड़ा हो या घड़े में पानी, बात तो एक ही है | कृष्ण में मीराँ हो या मीराँ में कृष्ण एक ही है |
मिलन हो या विरह, वेदना हो या उल्लास, दुःख हो कि सुख मीराँ ने ये सब कुछ अपने प्राणाधार में पाया | दर्द भी उसका दिया हुआ और दवा भी उसकी | उसका सांवरिया ही उसका वैध | शरीर, मन, आत्मा, प्राण और ह्रदय मीराँ ने ये सभी कृष्ण को अर्पण कर दिया | बस एक ही राग, एक ही आलाप “मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो ना कोई | कैसी एकनिष्ठता ! मीराँ जैसे एक लहर हो और कृष्ण जैसे महासागर ! मीराँ उसी महासागर में समा जाती है | कृष्ण के रूप में आकर्षण है, मोहकता है, लावण्य है | यही कारण है कि कृष्ण सबको अपना-सा लगता है और अपने मोह में बाँध देता है | मीराँ ने माधुर्य भाव से कृष्ण का स्मरण किया | कृष्ण का युवा रूप मीराँ को मोह गया | मीराँने अपनी भावना कुछ इस प्रकार व्यक्त की,
“मेरे नैना निपट लंपट बंकट छवि अटके |
देखत रूप मदन मोहन को पियत पियूखन मटके |
बारिज भवां अलक टेढ़ी करि मुरली टेढ़ी पाग लर लटके |
मीराँ प्रभु के रूप लुभानी गिरधर नागर नट के | “ कृष्ण की मोहिनी मूरत की मीराँ दीवानी हो गई | “ जब से मोहि नंदनंदन द्रष्टि पडयो माई | तब से परलोक लोक कछु ना सोहाई | “ मीराँ ने कृष्ण से कुछ नहीं चाहा, कुछ नहीं माँगा | वो तो हंमेशा अपने ही ख्यालो में प्रियतम के साथ डूबी रहती थी | अद्वैतभाव प्रेम की पराकाष्ठा है | इस आलोकपूर्ण दशा में पहुंचे भक्त के प्रमोन्मत ह्रदय में किसी अन्य कामना की इच्छा नहीं रहती | प्रेम की यह सिद्धि भक्ति की सिध्धि है |
मीराँ की प्रेम साधना का प्रेम स्वरूप एक दीर्घयात्रा सा द्रष्टिगत होता है, जिसका प्रारम्भ तो प्रियतम के रूप-सौन्दर्य के प्रति गहरी आसक्ति से हुआ, और उसका अंत मानव जीवन के उस अंतिम पडाव पर पहुँचता है, जिसे सभी थके-हारे मानव मात्र अपनी पराजय एवं अतृप्ति का तीर्थ-स्थल मानते है | मीराँ के प्रेम की यही विशेषता रही कि उसके भीतर मीराँ के सांवरियामय-मन को स्वछन्द और उन्मुक्त विलास अवश्य प्राप्त होता है | एक दिव्य माधुर्यपूर्ण मीठी-सी पीड़ा, एक थका हारा पराजित मन यही तो मीराँ की सुदीर्घ जीवन यात्रा के मार्गदर्शक पत्थर है | प्रेममूर्ति मीराँ को शत-शत वंदन | युगों-युगों तक मीराँ का गुणगान इस धरती पर होता रहेगा |

-नंदिनी राजेश ठाकर
शोधकर्ता (S.N.D.T WOMEN’S COLLEGE, MUMBAI)
प्राथमिक शिक्षिका (महानगरपालिका अंग्रजी शाळा)
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