मीराँबाई और मेड़ता

 

लेखक: देविकिशन राजपुरोहित

प्रकाशक: राजपुरोहित प्रकाशन, चम्पा खेड़ी बाया-रेणु, जिला नागौर (राजस्थान)

संस्करण 2010

भक्त शिरोमणि मीराबाई पर अद्यतन प्रकाशित ग्रंथों की कड़ी में श्रीदेवीकिशन राजपुरोहित द्वारा लिखित ‘मीराबाई और मेड़ता’ एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। श्री राजपुरोहित मेड़ता क्षेत्र के निवासी हैं हिंदी, राजस्थानी एवं इतिहास के अध्ययन एवं स्थापित लेखक हैं इससे बढ़कर भी वह मीरा भक्त हैं अतः उनकी पुस्तक का अपना अलग महत्व है मीराबाई और मेड़ता पुस्तक वस्तुतः तीन खंडों में विभक्त है।

प्रथम भाग मेड़ता के संक्षिप्त इतिहास को प्रस्तुत करता है, जिसमें पुनः स्थार्पित मेड़ता के प्रथम राव वरसिंह, उनके पुत्र सीहा,राव दुदा, राव वीरमदेव, राव जयमल एवं जयमल के पश्चात मेड़ता अध्यायों में मेड़ता के शासकों और उनके राज्य कल की प्रमुख घटनाओं का विवरण दिया गया है. एक प्रकार से इस खंड को *मेड़ता के इतिहास* की संज्ञा दे सकते है। इस खंड के अंतर्गत ही मीराबाई के समय मेवाड़, रैदास मीरा के गुरु नहीं थे गोस्वामी तुलसीदास एवं मीराबाई के बीच पत्राचार ,मेड़ता के चारभुजा मंदिर में प्रथम प्रसाद मोची का चढ़ाने की परंपरा, मीराबाई का जीवनव्रत की विवेचना की गई है। लेखक ने यह मान्यता स्थापित करने का प्रयास किया है कि रैदास को मीरा का गुरु मानने की जनश्रुति प्रामाणिक एवं सत्य नहीं है, तथा तुलसीदास एवं मीरा के बीच पत्राचार भी मात्र कल्पना ही है।

दूसरे भाग में मीराबाई की जन्म तिथि-वर्ष ,जन्म- स्थान के संबंध में प्रचलित विभिन्न मतों और धारणाओं का उल्लेख करते हुए यह स्पष्ट रूप से स्थापित करने का प्रयास किया है कि मीराबाई का जन्म श्रावण शुक्ला एकादशी 1561 को मेड़ता में हुआ था ।कुड़की, बाजोली  आदि स्थानों को उन्होंने मीरा के जन्म स्थान के रूप में नकारा है, इसी प्रकार पर इस मत का भी खंडन करते हैं कि मीरा का जन्म वि.सं.1555 में हुआ था ।मीरा के जीवनवृत्त संबंधी कतिपय विवादों के निर्णयआत्मक स्थिति की ओर ले जाने का श्री राजपुरोहित ने प्रयास जो किया है वह एक स्वागत योग्य है।

पुस्तक के तीसरे भाग में लेखक ने डाकोर -काशी प्रति के पदों एवं उनके आधुनिक राजस्थानी पाठ को प्रस्तुत किया है ,जो इस मान्यता को दृढ़ बनाता है जब तक अन्य कोई इसमें प्राचीन मीरा के पदों की प्रति प्राप्त न हो जाए तब तक साहित्य में मीरा के पद पदों के रूप में डाकोर -काशी प्रति को ही स्वीकार करना चाहिए। इसके अलावा पुस्तक में बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारियां राजपुरोहित जी द्वारा दी गई है।