जाणाँ रे मोहणा, जाणाँ थारी प्रीत।।टेक।।

प्रेम भगति री पैड़ा म्हारो, अवरु ण जाणाँ नीत।

इमरत पाइ विषाँ क्यूँ दीज्याँ, कूँण गाँव री रीत।

मीराँ रे प्रभु हरि अविणासी, अपणो जणरो मीत।।46।।

जावादे जावादे जोगी किसका मीत।।टेक।।

सदा उदासी रहै मोरि सजनी, निपट अटपटी रीत।

बोलत वचन मधुर से मानूँ, जोरत नाहीं प्रीत।

म्हें जाणूँ या पार निभैगी, आँड़ि चलै अधबीच।

मीराँ के प्रभु स्याम मनोहर, प्रेम पियारा मीत।।47।।

धूतारा जोगी एकर सूँ हँसि बोल।।टेक।। जगत वदीत करौ मनमोहन, कहा बजावत ढोल। अंग भभूति गले मिगछाला, तू जन गुड़िया खोल। सदन सरोज बचन की सोभा, ऊभी जोऊँ कपोल। सेली नाद बभूत न बटवो, अजूँ मुनी मुख खोल। चढ़ती बैस नैण अणियाले, तू घरि घरि मत डोल। मीराँ के प्रभु हरि अविनासी, चेरी भई बिन मोल।।48।।

रमईया मेरे तोही, सूँ लायी नेह।

लगी प्रीत जिन तोड़ै रे बाला, अधिक कीजै नेह।।टेक।।

जो हूँ ऐसी जानती रे बाला, प्रीत कीयाँ दुष होय।

नगर ढंढोरी फेरती रे, प्रीत करो मत कोय।

षीर न षाजे आरी रे, मूरष न कीजै मित।

षिण ताता षिण सीतला रे, षिण वैरी षिण मित।

प्रीत करें ते बावरा रे, करि तोड़ै ते कूर।

प्रीत निभावण दलके षंभण, ते कोई बिरला सूर।

तुम गजगौरी को चूँतरो रे, हम बालू की भीत।

अब तो म्याँ कैसे वणै रे, पूरब जनम की प्रीत।

वाकौ रस नीकौ लगै रे, वाको लागै सूल।

ज्यूँ डूगर का बाहला रे, यूँ ओछा तणा सनेह।

बहता वहैजो उतावला रे, वे तो अंटक बतावे छेह।

आयो सावन भादवा रे, बोलण लगा मोर।

मीराँ कूँ हरिजन मिल्या रे, ले गया पवन झकोर।।49।।

गिरधर रीसाणा कोन गुणाँ ।।टेक।।

कछुक ओगुण हम पै काढ़ो, म्हें भी कान सुणाँ।

मैं तो दासी थाराँ जनम जनम की, थें साहब सुगणाँ।

मीराँ कहे प्रभु गिरधर नागर, थारोई नाम भणाँ।।50।।

साँवरो नन्द नँदन, दीठ पड्îाँ माई।

डारîयाँ सब लोकलाज सुध बुध बिसराई।

मोर चन्द्रिका किरीट मुगट छब सोहाई।

केसर री तिलक भाल, लोणण सुखदाई।

कुण्डल झलकाँ कपोल अलकाँ लहराई।

मीणा तज सरवर ज्यों मकर मिलण धाई।

नटवर प्रभु भेष धर्याँ रूप जग लोभाई।

गिरधर प्रभु अंग-अंग मीराँ बलि जाई।।51।।

प्रेमाभिलाषा

णेणाँ वणज बसावाँ री, म्हारा साँवराँ आवाँ।।टेक।।

णेणाँ म्हाराँ साँवरा राज्याँ, डरता पलक णा लावाँ।

म्हारा हिरदाँ बस्याँ मुरारी, पल पल दरसण पावाँ।

स्याम मिलन सिंगार सजावाँ, सुखरी सेज बिछावाँ।

मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर, बार बार बलि जावाँ।।52।।

सखि म्हाँरो सामरिया णै, देखवाँ कराँ री।।टेक।।

साँवरो उमरण साँवरो सुमरण, साँवरो ध्याण धराँ री।

ज्याँ ज्याँ चरण धरणाँ धरणी धर, त्याँ त्याँ निरत कराँ री।

मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर, कुंजाँ मैल फिराँ री।।53।।

स्वजनों से मतभेद

भाई म्हाँणे सुपणा माँ परण्याँ दीनानाथ।

छप्पण कोटाँ जणाँ पधार्याँ दूल्हो सिरी ब्रजनाथ।

सुपणा माँ तोरण बँध्यारी सुपणा माँ गह्या हाथ।

सुपणा माँ म्हारे परण गया पायाँ अचल सोहाग।

मीराँ रो गिरधर मिल्यारी, पुरब जणम रो भाग।।54।।

थें मत बिरजाँ माइड़ी, साधाँ दरसण जावाँ।

स्याम रूप हिरदाँ बसाँ, म्हारे ओर णा भावाँ।

सब सोवाँ सुख नींदड़ी, म्हारे नैण जगावाँ।

ग्याण नसाँ जग बावरा ज्याकूँ, जाकूँ स्याम णा भावाँ।

मा हिरदाँ बस्याँ साँवरो म्हारे णींद न आवाँ।

चैमास्याँ री बावड़ी, जया कूँ नीर न पीवाँ।

हरि निर्झर अमरित झर्या, म्हारे प्यास बुझावाँ।

रूप सुरंगा साँवरी, मुख निरखण जावाँ।

मीराँ व्याकुल विरहिणी अपणी कर ल्यावाँ।।55।।

आज म्हाँरो साधु जन नी सँगरे, राणा म्हाँरा भाग भल्या।।टेक।।

साधू जन नी संग जो करिये, चढ़ेते चैगणी रंग रे।

साकत जन नी संग न करिये, पड़े भजन में भंग रे।

अड़सठ तीरथ संतों ने चरणे, कोटि कासी कोटि गंग रे।

निन्दा करसे नरक कुंड माँ, जासे थासे आँधरा अपंग रे।

मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, संतो नी रज म्हाँ रे अंग रे।।56।।

राणो म्हाँने या बदनामी लगे मीठी।।टेक।।

कोई निन्दो कोई बिन्दो मैं चलूँगी चाल अपूठी।

साँकड़ली सेर्याँ जन मिलिया क्यूँ कर फिरूँ अपूठी।

सतसंगति मा ज्ञान सुणै छी, दुरजन लोगाँ नै दीठी।

मीराँ रो प्रभु गिरधर नागर, दुरजन जलो जा अँगीठी।।57।।

परीक्षा

साँवरियो रंग राचाँ राणा, साँवरियो रंग राचाँ।।टेक।।

ताल पखावज मिरदंग बाजा, साधाँ आगे णाच्याँ।

बूझ्या माणे मदण बावरी, स्याँम प्रीतम्हाँ काचाँ।

विख रो प्यालो राणा भेज्याँ, आरोग्याँ णाँ जाचाँ।

मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर, जनम जनम रो साँचाँ।।58।।

राणोजी थें जहर दियो म्हें जाणी।। टेक।।

जैसे कंचन दहत अगिन में, निकसत बाराँवाणी।

लोकलाज कुल काण जगत की, दइ बहाय जस पाणी।

अपने घर का परदा करलें, मैं अबला बौराणी।

तरकस तीर लग्यो मेरे हियरे, गरक गयो सनकाणी।

सब संतन पर तन मन वारों, चरण कँवल लपटाणी।

मीराँ को प्रभु राखि लई है, दासी अपणी जाणी।।59।।

यो तो रंग धत्ताँ लग्यो ए माय।।टेक।।

पिया पियाला अमर रस का, चढ़ गई घूम घुमाय।

यो तो अमल म्हाँरो कबहूँ न उतरे, कोट करी उपाय।

साँप पिटारो राणाजी भेज्यो, द्यौ मेड़तणी गल डार।

हँस हँस मीराँ कंठ लगायो, यो तो म्हाँरे नौसर हार।

विष को प्यालो राणो जी भेज्यो, द्यो मेड़तणी णे पाय।

कर चरणामृत पी गई रे, गुण गोविन्द रा गाय।

पिया पियाला नाम का रे, और न रंग सोहाय।

मीराँ कहै प्रभु गिरधर नागर, काचो रंग उड़ जाय।।60।।