लेखक : पल्लव
प्रकाशक : आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड
संस्करण : प्रथम 2007
मीरा का समाज ठहरा हुआ समाज था, जहां गतिशीलता नहीं थी। इस समय देश में धीरे-धीरे एक केन्द्रीय सत्ता स्थापित हो रही थी और अब यहां के समाज में फैले मत मतान्तरों, अन्धविश्वासों और रुढ़ियों के विरोध में एक सहज चिन्तनधारा भक्ति आन्दोलन के रूप में आई। सामाजिक विषमताओं के खिलाफ भक्ति का यह हथियार आन्दोलन का रूप इसलिए ही ग्रहण कर पाया कि इसमें लोकोन्मुखता, मानवीयता और समतामूलक दृष्टि सदृश गुण विद्यामान थे।
प्रस्तुत संकलन मीरा की कविता के पुनर्मूल्यांकन का एक विनम्र प्रयास है। इसे पुनर्मूल्यांकन कहना भी उचित नहीं है क्योंकि बावजूद दर्जनों छोटी-बड़ी पुस्तकों के मीरा की कविता का सही महत्व अभी पहचाना नहीं जा सका है। प्रयत्न रहा है कि मीरा के व्यक्तित्व और उनकी कविता पर पड़े आवरणों से हटकर उनका सही मूल्यांकन किया जाए। डाॅ. विश्वनाथ त्रिपाठी का लेख भक्ति आंदोलन और वर्ण व्यवस्था के भीतर नारी की स्थिति का गम्भीर अध्ययन करता है। चन्द्रा सदायत ने भारतीय भक्त कवयित्रियों की परम्परा को बताते हुए मीरा का महत्व बताया है। पंकज बिष्ट और अनामिका के आलेख मीरा को समझने का अनुपम प्रयत्न हैं, वहीं हिन्दी आलोचना और मीरा के मूल्यांकन को लेकर युवा आलोचक हिमांशु पण्ड्या ने नई बातें कही हैं तो स्वस्थ बहस की जरूरत भी नवल किशोर, रवि श्रीवास्तव और नन्दकिशोर आचार्य के आलेख पूरी करते हैं। जीवन सिंह के लेख का उल्लेख करना आवश्यक है क्योंकि जिस आलोचनात्मक विवेक के साथ वे मीरा की कविता का मूल्यांकन करते हैं वह उन जैसे सहृदय के लिए ही सम्भव है। मत विभिन्नताएं पुस्तक में बार-बार नजर आएंगी और उनका होना मुझे जरूरी भी लगता है।
कुल 26 रचनाकारों की अभिव्यक्ति इस पुस्तक में हुई साथ ही, स्त्री-विमर्श में मीरा का मर्म, विद्रोह की पगडंडी, मीरा का दर्द आदि महत्वपूर्ण विषयों को भी बहुत सुन्दरता से प्रस्तुत किया गया है।