मीराँबाई ग्रंथावली-1 (मीराँबाई की जीवनी)

लेखक : प्रो. कल्याणसिंह शेखावत

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन

संस्करण : द्वितीय 2010

इतिहास और साहित्य के अनेक विद्वानों ने मीराँबाई के जीवनवृत्त पर अपने-अपने दृष्टिकोणों से पुनर्विचार किया है। इतिहास के विभिन्न ग्रंथों में मीराँबाई का कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता किन्तु मुहजोत-नेणसी, बाँकीदास दयालदास तथा अन्य ख्यात और विगत लिखने वाले इतिहासकारों ने प्रसंगवश उल्लेख किया। तत्पश्चात् विदेशी लेखकों में कर्नल जेमस टाॅड, एच.जी. वेल्स जैसे रचनाकारों ने भी मीराँ के संबंध में अप्रमाणिक लेखन किया है। आधुनिक इतिहासकारों में देखा जाये तो गौरीचन्द हीराचन्द ओझा, हरविलासशारदा, डाॅ. रघुवीर सिंह, पं. रामकर्ण आक्षोपा, विश्वेश्वर नाथ रेऊ, डाॅ. गोपीनाथ शर्मा, डाॅ. दशरथ शर्मा राम जैसे अनेक इतिहासकारों ने मीरा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार कर लेखन किया है।

इस ग्रंथ में लेखक की मान्यता है कि मीरा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है। यह शब्द भारतीय संस्कृति और वाङ्गमय में इतना घुला-मिला है कि जिसे हम चाहकर भी भारतीय संस्कृति और वाङ्गमय से अलग नहीं कर सकते हैं। मीरा शब्द संस्कृत का है जिसका अर्थ है-लक्ष्मी। इस तरह यह खारिज कर दिया लेखक ने कि मीराँ शब्द विदेशी है।

मीराँ के गुरु पर लेखक की राय है कि मीरा का कोई धार्मिक गुरु नहीं था अथवा मीरा ने किसी को भी अपना गुरु स्वीकार नहीं किया था। मीराँ के साँवरिया गिरधर ही मीराँ के गुरु थे। उनके पद भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि मीराँ के आराध्य देव और गुरु दोनों एक हैं।

इस ग्रंथ में मीराँ सम्प्रदाय और मीराँ मन्दिरों की चर्चा है। मीराँ सम्प्रदाय किसी न किसी स्वरूप में भारत में रहा है और उसका विकृत, अस्पष्ट किंतु धुँधला चित्र भारत में देखा जा सकता है। मीराँ की तरह ही कृष्ण के माधुर्य भाव की उपासिकाएँ हैं। अतः इसे ही किसी न किसी अंश तक मीराँ सम्प्रदाय कहा जा सकता है। इसके साथ अनेक मीराँ मन्दिरों की सूचनाएँ भी मिलती हैं किन्तु प्रामाणिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। हाँ मीराँ के बाल्य-जीवन की स्थली कुड़की का मीराँ मन्दिर इन सबमें विशेष कहा जाता है।

मध्ययुगीन कृष्ण भक्ति के संदर्भ में मीराँ के भक्ति रूप की बात की जाये तो उनके यहाँ हमें दो भक्ति रूप दिखाई देते हैं। एक ओर मीराँ अपने युग के सम्पूर्ण धार्मिक बन्धनों से पूर्ण सम्बन्धित दृष्टिगोचर होती है तो दूसरी ओर उस युग की पूर्ण प्रचलित, अनिवार्य एवं रुढ़ मान्यताओं तक को तोड़ने वाले साहसिक व्यक्तित्व की धनी लगती है। मीराँ का धार्मिक क्रान्तिकारी अथवा विद्रोही स्वरूप एक ओर यदि महात्मा कबीर के अत्यन्त समीप पहुँच जाता है तो दूसरी ओर उसका तत्कालीन धार्मिक युग और परिस्थिति में बँधा भक्ति स्वरूप एक आज्ञाकारी वैष्णव भक्त के अत्यन्त निकट दृष्टिगत होता है।

मीराँ की काव्य भाषा की बात की जाये तो उनमें कवित्व शक्ति का प्रदर्शन और छन्द शास्त्र के विधान की धरपकड़ नहीं थी, न ही उनमें व्याकरण के दाँव-पेंच ही थे। मीराँ के पद एक भक्त हृदय के निश्छल, निर्भीक और प्रेमपूर्ण भावों की अभिव्यक्ति हैं जो अनायास ही उच्चारित हुए थे।

मीराँबाई की भक्ति, युग सापेक्ष होते हुए भी अपने और परवर्ती युग को मार्ग प्रदर्शक देन है। अपने युग और परिस्थितियों से प्रभाव ग्रहण करते हुए उसी युग को मूल्यवान देन का सौभाग्य बहुत कम भक्तों को प्राप्त होता है। मीराँ अपने लौकिक जीवन में एक क्रान्तिकारी अथवा विद्रोही प्रवृत्ति की नारी के रूप में सामने आती है। अतः मीराँ को उसके जीवन, साहित्य और भक्ति इन तीनों ही क्षेत्रों में, एक क्रान्तिकारी युगदृष्टा अथवा युगस्रष्टा नारी के रूप में ही अधिक स्मरण रखा जा सकता है।