मीरा संचयन

संपादक : नन्द चतुर्वेदी

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन

संस्करण : प्रथम 2006

इस पुस्तक में मीराबाई की कविता संकलन को नन्द चतुर्वेदी ने महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति और प्रसिद्ध कवि अशोक वाजपेयी की प्रेरणा से तैयार किया है। यहां मीरा को पढ़ते ही प्रेम की वे मनोरमताएँ दिखने लगती हैं जो शरीर की और रूप-लावण्य की हैं और वह सामथ्र्य भी जो शरीर के अतिक्रमण में है। वे पूरी तरह, पूरे विवेक के साथ कृष्ण प्रेम में डूबी हुई अद्भुत कवयित्री है। मीरा की कविता उनके जीवन और समय का यथार्थ चित्रण है, चित्र-शृंखला की तरह है। कवयित्री मीरा की कविता का शक्ति का केन्द्र माधुर्य है: अनन्त प्रेम और माधुर्य। वे रसेश्वर कृष्ण की प्रिया और पत्नी होने की कामना करती हैं। मीरा के पास केवल कृष्ण हैं। मीरा केवल ‘प्रतीक्षा’ को पदों में बाँधती है। थोड़े से संसार-विरक्ति के पद भी हैं। मीरा के काव्य का विशेष वैभव कृष्ण की अनुपस्थिति, उनका विरह ही है। उनके बिना सारा देश सूना है ‘‘पिया बिन सूनो छे जी म्हारे देस’’। इस तरह मीरा कृष्ण को इसी भाव में, इसी लोक में, ढोल बजाकर सबके सामने प्राप्त करना चाहती है। कवयित्री महादेवी वर्मा ने एक व्याख्यान में इस तथ्य को रेखांकित करते हुए लिखा भी है, ‘‘मीरा के काव्य में आलोक है, विद्युत है, जिसमें कहीं पर भी किसी के प्रति दुर्भावना नहीं है। यद्यपि सन्तों ने और निर्गुणवादियों ने यदा-कदा समाज और शास्त्रों को भी भला-बुरा कहा है। कबीर ने तो सबकी खबर ली है। खूब कठोरता के साथ पण्डित-मुल्ला को भी फटकारा है। किंतु वहीं मीरा ने केवल मधुर रस बहाया है। मधुर कहा है, उसके पास माधुर्य के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं।’’

मीरा की कविता उनके निष्कलुष, निर्भीक, निष्कपट, मन को समाज के साथ रखती हैं और उनकी भाषा शुद्धतावादी आभिजात्य के दर्द को तोड़ती है। उनकी भाषा सब भाषाओं का अनायास मेल है। अतः कहा जा सकता है कि मीरा की कविता आत्म-निवेदन की सहज स्फूर्त अभिव्यंजना है।